पथिक बना मैं घूम रहा हूँ
सच्चाई से दूर खड़ा हूँ
खुद की इच्छा खुद में सोई
अनजानी सी रोई–रोई
सच में सच से दूर पड़ा हूँ
अस्तित्व मैं खुद का ढूंढ रहा हूँ
पथिक बना मैं घूम रहा हूँ ….
मानो ‘मैं’ का षरयंत्र रचा है
खुद में खुद परतंत्र खड़ा है
देख चमक संसार की सारी
क्रय-विक्र होते नर-नारी
प्रभु की इच्छा क्या कोई जाने
जो स्वयं को शिव से अव्वल माने
तितर-बितर हो धरम पड़ा है
धीर-धैर्य में रोष अडा है
कौन सावित्री-हरिश्चंद्र थे
मानस-मदिरा मदहोश पड़ा है
मन-मंदिर मदिरा का प्याला
जपता फिरता ‘मैं’ की माला
‘मैं’ की महिमा सोपान है चढती
आदर-मय मदिरा की शाला
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