☁️ ⛅️ ☀️ 🌷 थोड़ी देर रुका जीवन फिर से चलने वाला है थोड़ा संयम और सही ये संशय जाने वाला है
देखा है मैंने गमले में अंकुर नया फूटकर आया अचेतन था दुबका अंदर वह जीवन बन आया अंदर बैठा अंधकार में साँसों को संभाला होगा जड़ को आस दिखाकर कितना समझाया होगा
एक पुराने पौधे पर फूल नया इतराया है थोड़ी देर रुका जीवन फिर से चलने वाला है
देखो सूरज बादल से वह कब लड़ता है जबतक बादल रहे सामने अंदर रहता है कितना ओज भरा सोचो संयम रखता है जैसे ही बादल छँटता फिर आ जाता है
ऐसे ही फिर नई धूप में जीवन दिखने वाला है थोड़ी देर रुका जीवन फिर से चलने वाला है
धीरे-धीरे जब आँगन में यहाँ फैलता सूनापन। गीले-गीले नयनों से हृदय नापता अपनापन।।
अपनापन रातों का सच्चा दिन का है दर्पण कच्चा सच में दंभ यथा भरने से मेरा खाली बर्तन अच्छा अच्छाई की बनी चाशनी में पिघलाता मैलापन। गीले-गीले नयनों से हृदय नापता अपनापन।।
सागर की लहरों में भी गिरती देखी ठंडी ओस मिलकर खारी हो जाती हैं कैसे बोलूँ किसका दोष मीठापन देकर सरिता ने पाया केवल खारापन। गीले गीले नयनों से हृदय नापता अपनापन।।
उन फूलों का मुरझाना गिरकर थोड़ा मुस्काना और पंखुड़ी को फैलाकर हौले-हौले समझाना सपना बोलूँ या अवरोध कौन कराए इसका शोध शायद मौन कराएगा रुक-रुक कर इसका भी बोध ऐसे सारे संतापों का होगा मधु से उद्यापन।
गीले-गीले नयनों से हृदय नापता अपनापन।। धीरे-धीरे जब आँगन में यहाँ फैलता सूनापन। गीले-गीले नयनों से हृदय नापता अपनापन।।
धूप में खड़ा-खड़ा नाप रहा हूँ अपनी ही लम्बी होती परछाई को, कभी छोटी तो कभी बड़ी होती है कभी यहीं तो कभी दूर खड़ी होती है।
मैं बोलता हूँ वो बोलती नहीं लेकिन वो सजीव है मैं हिलाता हूँ तो हिलती है मैं चुप तो वो चुप मैं हँसा तो वो हँसी।
हाथ फिराया तो परछाई में नमी लगी शायद मेरे पसीने में भीगी लगी। तभी पसीने की एक बूँद फिर टपकी - टप्प ठीक बिवाई की दरार पर, जैसे कोई अगरबत्ती जली हो रेत में धंसी मज़ार पर।
मैं भी सजीव हो उठा दौड़ने लगा धूप में परछाईयाँ बटोरने लगा धूप में तन्हाईयाँ निचोड़ने लगा धूप में।
तभी, तभी, तभी वहाँ एक बादल का टुकड़ा उड़ा दिखने में छोटा लेकिन धरा से बड़ा
मैंने कहा ए हवा के नक़्शे कौन हो बताओ? कहने लगा मैं छाया हूँ सबेरे से बहुत धूप खंगाली तुमने लो कुछ साँझ लाया हूँ लो कुछ साँझ लाया हूँ
“The Kashmir Files” एक ऐसी फ़िल्म है जो आज़ाद भारत में हुई सबसे बड़ी त्रासदी, अत्याचार और नरसंहार को दर्शाती है। यह 1990 के आसपास कश्मीर में हुए कश्मीरी पंडितों पर मुस्लिम कम्यूनिटी के द्वारा किए गए आतंकवाद को दिखाती है। ये बताती है कि कैसे वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदु परिवारों को दो विकल्प दिए गए – या तो इस्लाम अपनाइए या कश्मीर छोड़िए।
निर्देशक – विवेक अग्निहोत्री
कलाकार – अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती, दर्शन कुमार, पल्लवी जोशी।
निर्देशक विवेक अग्निहोत्री के साहस और उनकी निष्ठा को सलाम। आज से पहले कितनी ही फ़िल्में कश्मीर के परिदृश्य में आतंकवाद पर बनी लेकिन ये उनसे अलग है – फ़िल्म मुद्दे से कहीं नहीं भटकती – शुरू से अंत तक यही दर्शाती है, समझाती है कि कैसे मुस्लिम कम्यूनिटी के सामूहिक आतंकवाद ने अपने मुहल्ले-पड़ोस में रह रहे हिंदू परिवारों की हत्या की, बहनो की अस्मिता को नोचा। अंततोगत्वा हज़ारों-लाखों हिंदू पण्डितों को कश्मीर की वादियों से पलायन होना पड़ा जहाँ वे दशकों दशक भरी सदियों से रह रहे थे।
1990 का दशक कोई बहुत पुराना नहीं लेकिन इन घटनाओं की राष्ट्रीय स्तर पर कोई मीडिया coverage नहीं हुई।
मज़े की बात है कि इसी दौरान हुई अन्य घटनाओं को मीडिया ने ख़ूब परोसा या राजनीतिक दलों ने ख़ूब पाला जैसे आरक्षण, बाबरी-मस्जिद लेकिन आज़ाद भारत के इतने बड़े नरसंहार और पलायन को नज़रंदाज़ किया।
वहाँ की राज्य सरकार भारत विरोधी हमेशा से रही है सो उनकी आतंकवादियों को प्रश्रय देना विदित रहा। दुःखद तो यह है कि उस समय की नपुंसक भारत सरकार ने भी जानबुझ कर अपने व्यक्तिगत हितों के लिए पूरे घटनाक्रम को अनदेखा किया।
फ़िल्म का स्क्रीन्प्ले बहुत सी जगह flashback में चलता है। फ़िल्म की कहानी के हिसाब से सारे कलाकार सलीके से चुने गए हैं। मुख्य कहानी पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) पर केंद्रित है। अनुपम खेर ने उत्कृष्ट अभिनय दिखाया और पुस्कर नाथ पंडित के परिवार की भयानक स्थिति को पर्दे पर जीवंत कर दिया। मिथुन चक्रवर्ती ने एक ब्युरोक्रट का किरदार निभाया है। पुष्कर नाथ के पोते कृष्णा – जो दर्शन कुमार ने निभाया है। दर्शन कुमार की performance शानदार है। हालाँकि फ़िल्म के अंत में उनकी स्पीच थोड़ी कमतर लगती है। शारदा पंडित का रोल भाषा सम्बलि ने बेहतरीन निभाया है।
स्क्रीन writers ने जगह-जगह कश्मीर का मूल परिवेश और भाषा का भी सही-सही ध्यान रखा है।
फ़िल्म में दो मुख्य high points हैं जैसे पुष्कर नाथ के बेटे की हत्या और climax में हिंदू परिवारों की सार्वजनिक हत्या जिसमें बारह साल का बच्चा शिवा भी शामिल है।
कुल मिलाकर यह फ़िल्म लीक से हटकर है और लोगों को पसंद भी आ रही है। इस तरह की फ़िल्म या यूँ कहें की सही डॉक्युमेंटरी की लोगों को लम्बे समय से तलाश थी। फ़िल्म कहीं भी तथ्यों से परे नहीं लगी।
देख दिसम्बर बूढ़ा होकर गिनता अपनी रातें है आने को तैयार जनवरी चार दिनों की बातें है
कैलेंडर ने चुप्पी साधी अंतिम साल महीने में नयी रोशिनी लेकर बैठी जनवरी अपने सीने में उस कोने में साल है बैठा ताके अपनी राहें है देख दिसम्बर बूढ़ा होकर गिनता अपनी रातें है
अंतिम साल महीना सिकुड़ा बिस्कुट चाय की प्याली-सा नया वर्ष है आने वाला उसपर एक मलाई-सा सर्द हवा में झूल रहा कैलेंडर लटका सोच रहा जल्दी गिनती गिनती कर लूँ स्वयं दिसम्बर नोच रहा आशाओं से बात करेंगे उम्मीदों को गाते हैं
देख दिसम्बर बूढ़ा होकर गिनता अपनी रातें है आने को तैयार जनवरी चार दिनों की बातें है
बुझे हुए दीपों से पूछो
कितने रोशनदान बनाए
अंधेरे को दूर भगा कर
घर में कितने राम सजाए
लौ ने कैसे ठुमक-ठुमक कर
देखा ख़ुद को जला रही थी
आधी बाती बची हुई
तिरछी होकर बता रही थी
एक बूँद जो तेल बचा था
गाथा अपनी आप बताए
बुझे हुए दीपों से पूछो
कितने रोशनदान बनाए|
एक बुझे दीपक ने ऊपर
सूरज का संकेत दिखाया
हम सब दीपक जब जलते थे
सूरज को जलता बतलाया
और रात की जाती पायल
दिन को दीपों की बात बताए
बुझे हुए दीपों से पूछो
कितने रोशनदान बनाए|